ऐसा कहा जाता है कि सम्राट मोहम्मद शाह के दरबार से निजाम उल मुल्क के बाहर निकलने से शक्तिशाली मुगलों का पतन शुरू हो गया. उसी तरह अहमद भाई मोहम्मदभाई पटेल के निधन से आज कांग्रेस के टूटने की आशंका वास्तविक होती दिख रही है. उनकी अनुपस्थिति सबसे ज्यादा तब महसूस की जाएगी जब गांधी परिवार कांग्रेस को एकजुट रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. अब संभावना है कि असंतुष्ट कांग्रेसी नेताओं, जी-23 (चिट्ठी लिखने वाले 23 नेता) और कुछ क्षत्रपों को मौजूदा इकोसिस्टम से अलग अधिक मुखर, सक्रिय और चिंतनशील जीवन मिले.
अपने शोक संदेश में सोनिया गांधी ने उन्हें ‘अनमोल साथी’ बताया. वह और राहुल गांधी आने वाले हर मौके पर पटेल को याद करेंगे. सोनिया गांधी से करीबी के कारण अहमद पटेल उर्फ अहमद भाई लगभग दो दशकों तक गो-टू पर्सन यानी ऐसे शख्स बने रहे जो किसी भी दिक्कत के समय सबसे पहले याद किए जाते थे. कांग्रेस शासित राज्य के किसी भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत या वी नारायणस्वामी उनके एक टेलीफोन कॉल के बाद वही सब कहते थे, जो कांग्रेस आलाकमान सुनना या लागू करना चाहता है. गैर-भाजपा राजनीतिक दलों, कॉर्पोरेट जगत, मीडिया घरानों, धार्मिक संगठनों के प्रमुख और गैर-सरकारी संगठनों के नेताओं के साथ भी उनका यही मामला था. इस दौरान कई बार समझौते भी करने पड़े, लेकिन अधिकतर मौकों पर कोई ना कोई समाधान निकल आया.
कांग्रेस के भीतर कहा जाता है कि अहमद पटेल ने 2002 के दंगों के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आक्रामक और राजनीतिक कदम उठाने पर आपत्ति जाहिर की थी. जबकि कांग्रेस में कुछ वकील नेता और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले कुछ मंत्री साल 2004 में मोदी के खिलाफ एक सख्त कदम के पक्षधर थे. पटेल ने कथित तौर पर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को ‘कानून को अपना काम करने’ के लिए मनाया. इसे लेकर पार्टी का एक छोटा हिस्सा हमेशा पटेल के खिलाफ रहा, लेकिन भरूच के सांसद अंत तक आश्वस्त रहे कि यह कदम फायदेमंद होगा. इसके चलते कांग्रेस-नीत UPA की सरकार ठीक ढंग से नहीं चल पाई.अपनी हार को ‘धर्मनिरपेक्षता की हार’ बताया
ऐसा नहीं था कि पटेल भाजपा या संघ परिवार के प्रति नर्म थे. दरअसल वह उनसे सबसे अधिक पीड़ित थे. साल 1989-91 तक जब गुजरात ने रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान विश्व हिंदू परिषद के अभूतपूर्व उत्थान को देखा, पटेल ने साल 1977, साल 1980 और साल 1984 में भरूच से तीन बार लोकसभा सदस्य के रूप में प्रतिनिधित्व किया. हालांकि, वह साल 1989 का लोकसभा चुनाव हार गए. उनके खिलाफ एक सांप्रदायिक अभियान चला. पटेल एक लोकप्रिय व्यक्ति थे जिन्हें स्थानीय लोग ‘बाबू भाई’ कह कर बुलाते थे. कथित तौर पर विहिप ने बाबू भाई से नाम बदलकर हर दीवार, पोस्टर, बैनर में उनकी धार्मिक पहचान पर जोर देते हुए ‘अहमद’ कर दिया. पटेल को 18, 909 वोटों से हार का सामना करना पड़ा. उन्होंने अपनी हार को ‘धर्मनिरपेक्षता की हार’ बताया.
चुनावी राजनीति में प्रासंगिकता खोने के कारण पटेल निराश नहीं हुए. साल 1993 में राज्यसभा में आते ही, पटेल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी. नरसिम्हा राव से करीबी बढ़ाई. उस वक्त राव को 10 जनपथ यानी सोनिया के साथ काम करने में कई व्यावहारिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा. इस दौरान राव ने उन्हें सोनिया के साथ बातचीत के एक प्रभावी जरिये के रूप में इस्तेमाल किया. राजीव गांधी के बाद हर बार नए कांग्रेस अध्यक्ष ने पदभार संभाला, लेकिन पटेल केंद्र बिन्दु बने रहे. दिसंबर 2017 में जब राहुल गांधी ने 87वें AICC प्रमुख का पद संभाला, तब तक उनके कुछ समकालीन नेता निजी बातचीत में कहते थे- ‘न्यू सीपी (कांग्रेस प्रेसिंडेंट) सेम एपी’ (अहमद पटेल).
यूपीए शासनकाल के दौरान सोनिया गांधी, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वरिष्ठ मंत्री प्रणब मुखर्जी के बाद प्रतिष्ठान में पटेल चौथे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति थे. पार्टी में पटेल को पुराने नेताओं और राहुल से करीबी का दावा करने वालों के बीच एक पुल तौर पर देखा जाता था. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि देश में एक भी राज्य ऐसा नहीं है जहां पटेल व्यक्तिगत रूप से अधिकांश जिला-स्तरीय कांग्रेस पदाधिकारियों और चुने हुए प्रतिनिधियों को जानते थे.
कभी केंद्रीय मंत्री बनने की कोशिश नहीं की
कई अन्य कांग्रेस नेताओं के विपरीत पटेल ने कभी केंद्रीय मंत्री बनने की कोशिश नहीं की. 24 अकबर रोड, नई दिल्ली स्थित पार्टी के राष्ट्रीय मुख्यालय के एक कमरे में उनका दफ्तर था, जिसे वो 23 मदर टेरेसा मार्ग स्थित अपने आवास से चलाना पसंद करते थे.
लुटियन दिल्ली में 23 मदर टेरेसा मार्ग को एक शक्ति केंद्र माना जाता था. पटेल के घर तक सबकी पहुंच नहीं थी. प्रवेश और निकास के लिए कई द्वार थे. कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों, राज्य इकाइयों के पदाधिकारी और संसद से लेकर नागरिक निकायों तक चुनाव के उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला यहां तय होता था.
रोज़ सुबह कुरान पढ़ने वालों में से थे पटेल
पटेल के साथ अपॉइंटमेंट मिलना तब तक आसान नहीं था जब तक कि किसी को लैंडलाइन नंबर से देर रात स्लॉट देने का फोन नहीं आता. जो भी उनसे मिलना चाहते वे पटेल को अलग-अलग जगहों पर मिलते, जिसमें मस्जिद भी शामिल है जहां वह शुक्रवार की नमाज अदा करते थे. एक समय बाद वह उन्हें नमाज पढ़ने के लिए मस्जिदें बदलनी पड़ती थीं. साल 2011 में हज करने वाले पटेल दिन में पांच बार नमाज पढ़ने, रमज़ान के रोज़े रखने और रोज़ सुबह कुरान पढ़ने वालों में से थे.
साल 2014 से पटेल सक्रिय राजनीति से रिटायरमेंट की तलाश में थे, लेकिन हर बार जब उन्होंने इस विषय को छेड़ा तो सोनिया इसे खारिज कर देती थीं जिसके बाद एक वफादार के रूप में उनके पास ‘हाईकमान’ के आदेश को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. हाल के दिनों में मैंने उनसे अपने संस्मरण लिखने पर विचार करने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने इसे तत्काल खारिज कर दिया. पटेल ने कहा- यह (राज) मेरे साथ कब्र तक जाएंगे.